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भारतेंदु हरिश्चंद्र । Bharatendu Harishchandra

1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम बेशक नाकाम रहा, लेकिन वह भारतीय समाज में आधुनिकता की सोच का गवाक्ष भी रहा है। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ पहली बड़ी बगावत की भारतीय समाज को काफी कीमत चुकानी पड़ी। लाखों लोग मारे गए, लोगों की संपत्ति अंग्रेज सरकार ने जब्ती के नाम पर लूटी। लेकिन इस क्रांति ने भारतीय समाज को पश्चिम से आ रही नई और ठंडी हवा के झोंकों से भी परिचय कराया। इस पर विवाद हो सकता है कि जिसे हम आधुनिकता कहते हैं, वह सचमुच क्या आधुनिकता है? इस सवाल का जिक्र इसलिए कि भारतीयता की जो अवधारणा है, वह अपने कहीं से कमतर नहीं मानती। बहरहाल ऐसे माहौल में काशी के समृद्ध वैश्य अमीरचंद के घर भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म लेना हिंदी नवजागरण का नया जरिया बनकर आया। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने महज 34 साल की उम्र पाई। लेकिन इतनी सी उम्र ने उन्होंने वह कर दिखाया, जिसका कई प्रतिभाशाली सपना तक नहीं देख पाते।

भारतेंदु हरिश्चंद्र के अवतरण के पहले हिंदी विकसित तो हो रही थी, लेकिन उसमें दो तरह की धाराएं थीं। एक धारा का नेतृत्व राजा लक्ष्मण सिंह कर रहे थे, जो हिंदी में संस्कृत के शब्दों के प्रयोग को बढ़ावा देने पर जोर देते थे, तो दूसरी धारा की कमान राजा शिवप्रसाद सिंह ‘सितार-ए-हिंद’ के हाथ थी, जिनका जोर हिंदी में फारसी के शब्दों को ठूंसने पर था। शिवप्रसाद सिंह की रचना ‘इतिहास तिमिरनाशक’को जिन्होंने पढ़ा है, वे समझ सकते हैं कि फारसी शब्दों की बहुलता से किस तरह की बेस्वाद भाषा का निर्माण हो सकता है। इसी तरह संस्कृत के भारी-भरकम शब्दों की बहुलता से हिंदी का भी सहज प्रवाह नहीं बना रह पाता। भारतेंदु ने अपनी मंडली के लेखकों पंडित प्रताप नारायण मिश्र, बदरीनारायण चौधरी प्रेमधन, पंडित बालकृष्ण भट्ट आदि के साथ हिंदी में नवधारा को बढ़ावा दिया। वह नवधारा थी, देसज और तद्भव शब्दों के प्रयोग का। भारतेंदु शायद ही जानते हों कि उनकी शुरू की हुई धारा भविष्य में हिंदी पत्रकारिता की धार बन जाएगी। आज हिंदी पत्रकारिता में एक सिद्धांत स्वीकार्य है, सहज और प्रवहमान शब्दों का प्रयोग। इसकी शुरूआती करीब डेढ़ सौ साल पहले भारतेंदु ने ही किया था। इसी धारा का असर है कि हिंदी भाषा से भारी-भरकम और अबूझ शब्दों को लगातार दूर किया गया।
भारतेंदु ने कविताएं, नाटक, कथा, आलोचना, रिपोर्ताज, निबंध काफी कुछ लिखा। पत्रकारिता भी जमकर की। उन्होंने बालाबोधनी, कविवचन सुधा और हरिश्चंद्र मैगजीन (बाद में हरिश्चंद्र चंद्रिका) पत्रिकाएं भी निकालीं। उसके जरिए हिंदी को मांजा और हिंदी को नवजीवन देने की कोशिश की। भारतेंदु की रचनाधर्मिता में हालांकि दोहरापन दिखता है। कविता जहां वे ब्रज भाषा में लिखते रहे, वहीं उन्होंने बाकी विधाओं में सफल हाथ खड़ी बोली में आजमाया। सही मायने में कहें तो भारतेंदु आधुनिक खड़ी बोली गद्य के उन्नायक हैं। उनकी पत्रकारिता और गद्य का बिपुल रचनात्मक संसार युगीनबोध के साथ ही भावी समस्याओं से दो-चार होता नजर आता है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने यूं तो ढेरों निबंध लिखे, लेकिन हरिश्चंद्र चंद्रिका के दिसंबर 1884 के अंक में प्रकाशित उनका निबंध ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है’ तत्कालीन भारतीय समाज की समस्याओं पर विचार करते हुए आगे की ओर बढ़ने की राह दिखाता युगांतकारी निबंध है। हालांकि यह निबंध उन्होंने पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया में हर साल कार्तिक महीने की पूर्णिमा से लगने वाले ददरी मेले के साहित्यिक मंच से नवंबर 1884 में दिया था। ददरी जैसे धार्मिक और लोक मेले के साहित्यिक मंच से भारतेंदु का यह उद्बोधन अगर देखा जाए तो आधुनिक भारतीय सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक चिंतन का प्रस्थानबिंदु है। ‘आर्यदेशोपकारिणी सभा’ अब बलिया में नहीं है, लेकिन उसके निमंत्रण पर भारतेंदु ने जो भाषण दिया, वह उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में बनती हिंदी का तो नमूना है ही, उस दौर की भारतीय सोच, चिंतन और उस चिंतन से उभरी दृष्टि का नमूना भी है।
इस निबंध से हिंदी में नवजागरण की शुरूआत मानी जाती है। इस निबंध के एक अंश को देखना समीचीन होगा,
“हमारे हिंदुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी हैं। यद्यपि फस्ट क्लास, सेकेंड क्लास आदि गाड़ी बहुत अच्छी -अच्छी और बड़े बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी हैं पर बिना इंजिन ये सब नहीं चल सकतीं, वैसे ही हिन्दुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना कह दीजिए ‘का चुप साधि रहा बलवाना’, फिर देखिए हनुमानजी को अपना बल कैसा याद आ जाता है। सो बल कौन याद दिलावै। या हिन्दुस्तानी राजे-महाराजे नवाब रईस या हाकिम। राजे- महाराजों को अपनी पूजा, भोजन, गप से छुट्टी नहीं। हाकिमों को कुछ तो सरकारी काम घेरे रहता है, कुछ बाल, घुड़दौड़, थिएटर, अखबार में समय गया। कुछ बचा भी तो उनको क्या गरज है कि हम गरीब गंदे काले आदमियों से मिलकर अपना अनमोल समय खोवैं।”
चूंकि यह गढ़ी जा रही हिंदी में विकसित हो रहा व्याख्यान था, इसलिए इस पर ब्रज का असर भी दिखता है। लेकिन विचारों की स्पष्टता और उसे विनोद प्रियता के साथ किस तरह प्रस्तुत किया जा सकता है, इसका यह निबंध बेजोड़ उदाहरण है। इसमें देखिए, किस तरह भारत की चिंता इस निबंध में भारतेंदु व्यक्त करते हैं,
“बहुत लोग यह कहैंगे कि हमको पेट के धंधे के मारे छुट्टी ही नहीं रहती बाबा,हम क्या उन्नति करैं? तुम्हरा पेट भरा है तुमको दून की सूझती है। यह कहना उनकी बहुत भूल है। इंगलैंड का पेट भी कभी यों ही खाली था। उसने एक हाथ से पेट भरा ,दूसरे हाथ से उन्नति की राह के कांटों को साफ किया।”
भारत के विकास और उसकी लूट की कहानी को इस निबंध में भारतेंदु किस तरह व्यक्त करते हैं, इसे भी देखा जाना चाहिए,
“देखो, जैसे हजार धारा होकर गंगा समुद्र में मिली हैं ,वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हजार तरह से इंगलैंड,फरांसीस,जर्मनी,अमेरिका को जाती है। दीआसलाई ऐसी तुच्छ वस्तु भी वहीं से आती है। जरा अपने ही को देखो।तुम जिस मारकीन की धोती पहने वह अमेरिका की बनी है।जिस लांकिलाट का तुम्हारा अंगा है वह इंगलैड का है। फरांसीस की बनी कंघी से तुम सिर झारते हौ और वह जर्मनी की बनी बत्ती तुम्हारे सामने बल रही है।यह तो वही मसल हुई कि एक बेफिकरे मंगनी का कपड़ा पहिनकर किसी महफिल में गए। कपड़े की पहिचान कर एक ने कहा, ‘अजी यह अंगा फलाने का है।‘ दूसरा बोला, ‘अजी टोपी भी फलाने की है।’ तो उन्होंने हंसकर जवाब दिया कि, ‘घर की तो मूंछैं ही मूंछैं हैं।’ हाय अफसोस,तुम ऐसे हो गए कि अपने निज के काम की वस्तु भी नहीं बना सकते। भाइयों, अब तो नींद से चौंको, अपने देश की सब प्रकार से उन्नति करो। जिसमें तुम्हारी भलाई हो, वैसी ही किताबें पढ़ो, वैसे ही खेल खेलो, वैसी ही बातचीत करो। परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का का भरोसा मत रखो। अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो।”
भारत दुर्दशा नामक उनका नाटक बहुत मशहूर है। इसमें वे कहते हैं,
रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई।
हा, हा ! भारत दुर्दशा देखी न जाई।।
भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है, इस नाटक का एक तरह से वैचारिक विस्तार है।
भारतेंदु ने हिंदी का पहला उपन्यास लिखना भी शुरू किया था। ‘कुछ आपबीती, कुछ जगबीती’ नाम से इसे लिख भी रहे थे। लेकिन असामयिक निधन से इसे पूरा भी नहीं कर पाए। लेकिन काव्य में भी उन्होंने बहुत कमाल रचा। भारतेंदु बेशक आधुनिकता बोध के विस्तारक थे, लेकिन उनकी काव्य चेतना में पारंपरिकता भी खूब दिखती है। अनुप्रास अलंकार के उदाहरण में एक रचना बहुत प्रचलित है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इसे भारतेंदु ने रचा था। इसे एक बार फिर देखा जाना चाहिए,
तरनि तनूजा तट तमाल तरूवर बहु छाए।
भारतेंदु को अगर लंबा जीवन मिला होता तो वे और कीर्तिमान रचते। लेकिन हिंदी भाषा और हिंदी समाज की नवचेतना पर जब भी विचार होगा, भारतेंदु के बिना वह पूरा नहीं होगा।
साभार : पांचजन्य.कॉम
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By Rashtra Samarpan

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