आज जहां पूरा देश होली की तैयारियों में व्यस्त है वहीं बहुत कम लोगों को जानकारी है कि बिहार के पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के सिकलीगढ़ में अब भी वह स्थान है जहां होलिका प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर जलती चिता के बीच बैठ गई थी और भगवान नरसिंह का अवतार हुआ था। इसके बाद हिरण्यकश्यप का वध किया गया था।
पूर्णिया जिले से 35 किलोमीटर की दूरी पर यह किला आज भी अवस्थित है। राजा हिरण्यकश्यप का महल का अधिकतर भाग जमीन के नीचे धस गया है। यहाँ भगवान नरसिंग का भव्य मन्दिर बनाया गया है। जिस खंभे को फाड़कर भगवान विष्णु ने नरसिंग अवतार लिया था वह आज भी है जिसकी लोग पूजा करते है। इस स्थल को देखने के लिए पर्यटक काफी दूर दूर से यहाँ आते है।
पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों के मुताबिक हिरण्यकश्यप के किले में भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए एक खम्भे से भगवान नरसिंह का अवतार हुआ था। भगवान नरसिंह के अवतार से जु़डा खम्भा (माणिक्य स्तम्भ) आज भी वहां मौजूद है। कहा जाता है कि इस स्तम्भ को कई बार तो़डने का प्रयास किया गया परंतु यह झुक तो गया लेकिन टूटा नहीं। हिन्दुओं की धार्मिक पत्रिका “कल्याण” के 31वें वर्ष के विशेषांक में भी सिकलीगढ़ का विशेष तौर पर विवरण देते हुए इसे नरसिंह भगवान का अवतार स्थल बताया गया था।
वर्तमान में कटिहार क्षेत्र के उप विकास आयुक्त एवं बनमनखी अनुमंडल के अनुमंडल पदाधिकारी रहे केशवर सिंह ने बताया कि इसकी कई प्रमाणिकताएं हैं। उन्होंने कहा कि यहीं हिरन नामक नदी बहती है। उन्होंने बताया कि कुछ वर्षों पहले तक नरसिंह स्तम्भ में जो छेद है उसमें पत्थर डालने से वह हिरन नदी में पहुंच जाता था। इसी स्थान पर भीमेश्वर महादेव का विशाल मंदिर है। मान्यता है कि हिरण्यकश्यप यहीं बैठकर पूजा करता था। मान्यताओं के मुताबिक हिरण्यकश्यप का भाई हिरण्यकच्छ बराह क्षेत्र का राजा था, जो अब नेपाल में प़डता है।
यही वह खंभा है जिसे फाड़कर भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लिया था
प्रहलाद स्तम्भ की सेवा के लिए बनाए गए प्रहलाद स्तम्भ विकास ट्रस्ट के अध्यक्ष बद्री प्रसाद शाह बताते हैं कि यहां शुरू से ही साधुओं का जमाव़डा रहा है। उन्होंने बताया कि माणिक्य सतम्भ स्थल के बारे में भागवत पुराण (सप्तम स्कंध के अष्टम अध्याय) में जिक्र है कि इसी खम्भे से भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लेकर भक्त प्रहलाद की रक्षा की थी। इस स्थल की विशेषता है कि यहां राख और मिट्टी से होली खेली जाती है।
ट्रस्ट के सचिव राकेश कुमार बताते हैं कि जब होलिका जल गई थी और प्रहलाद चिता से सकुशल वापस आ गए थे तब लोगों ने राख और मिट्टी एक-दूसरे पर लगा-लगाकर खुशियां मनाई थीं और तभी से होली प्रारम्भ हुई। उन्होंने बताया कि यहां होलिका दहन के समय करीब 40 से 50 हजार लोग उपस्थित होते हैं और जमकर राख और मिट्टी से होली खेलते हैं। आज भी मिथिला के लोग रंग की बजाए राख और मिट्टी से ही होली खेलते हैं।
महान संत महर्षि मेंही दास का पैतृक निवास स्थान भी यहीं है। इस क्षेत्र में मुसहर जाति की बहुलता है। जनश्रुतियों के मुताबिक इस क्षेत्र के मुसहर प्रारम्भ से ही ईश्वर और साधुओं की सेवा करते रहे हैं, इसी वजह से इस क्षेत्र में मुसहर लोगों का उपनाम “ऋषिदेव” होता है।
Ref: cityhalchal.in
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