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राम मंदिर: क्यों करनी पड़ी इतनी लंबी प्रतीक्षा, क्या जिम्मेदार लोग मांगेंगे क्षमा

ayodhya ram mandir
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— बलबीर पुंज 

यह स्वाभाविक है कि करोड़ों रामभक्त इससे प्रसन्न हैं कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर आकार ले रहा है, किंतु यह समय आत्मचिंतन करने का भी है। आखिर स्वतंत्रता के बाद हिंदुओं को अपने मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के लिए कुछ एकड़ भूमि को वापस लेने में दशकों का समय क्यों लगा? मुस्लिम लीग ने विषाक्त ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’, जो ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा से जनित था, की नींव पर वर्ष 1930 के इलाहाबाद अधिवेशन में अलग देश की मांग कर दी और तीन वर्ष पश्चात पहली बार पाकिस्तान नाम सामने आया। लगभग डेढ़ दशक में कलकत्ता डायरेक्ट एक्शन डे सहित भीषण नरसंहार, 20 लाख लोगों के मारे जाने और दो करोड़ लोगों के विस्थापित होने के बाद भारत का एक भूखंड पाकिस्तान, तत्कालीन भारतीय मुसलमानों को मिल गया, परंतु हिंदू बहुल खंडित भारत में हिंदुओं को रामजन्मभूमि प्राप्त करने में 77 वर्ष लग गए। यह स्थिति तब हुई जब श्रीराम इस भूखंड के मूल में युगों-युगों से है।

असंख्य रामभक्तों को अपेक्षा थी कि स्वतंत्रता मिलने के बाद जैसे सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ, वैसे ही अयोध्या, काशी, मथुरा सहित अन्य ऐतिहासिक अन्यायपूर्ण कृत्य का परिमार्जन भी राजनीतिक रूप से होगा, परंतु ऐसा नहीं हुआ- और वह भी तब, जब उस समय उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री जीबी पंत, वरिष्ठ कांग्रेसी नेता लाल बहादुर शास्त्री, शीर्ष अधिकारी केके नायर और नगर दंडाधिकारी गुरुदत्त सिंह के साथ प्रांतीय मुख्य सचिव भगवान सहाय एवं बाबा राघव दास सहित स्थानीय कांग्रेस नेता सोमनाथ मंदिर की भांति रामजन्मभूमि के स्थायी समाधान अर्थात् मंदिर पुनर्निर्माण के पक्ष में थे, फिर भी अयोध्या में राम मंदिर के पुनर्निर्माण का मामला लंबित रहा। इसका कारण सोमनाथ मंदिर संबंधित घटनाक्रम में मिल जाता है। स्वतंत्रता मिलने के बाद 12 नवंबर 1947 को तत्‍कालीन केंद्रीय गृहमंत्री और उप-प्रधानमंत्री सरदार वल्‍लभभाई पटेल ने जूनागढ़ में सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण की घोषणा की। गांधीजी इसके पक्ष में थे। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इसके विरोध में थे। फिर भी गांधीजी और सरदार पटेल के रुख के चलते वह स्वतंत्र भारत की पहली मंत्रिपरिषद की बैठक में सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण से संबंधित परियोजना और राजकीय वित्तपोषण की स्वीकृति का विरोध नहीं कर पाए।

जनवरी 1948 में गांधीजी की हत्या और दिसंबर 1950 में सरदार पटेल के देहांत के बाद नेहरू सोमनाथ मंदिर के खिलाफ मुखर हो गए। उन्होंने मंदिर निर्माण की कमान संभाल रहे मंत्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को ‘हिंदू पुनरुत्थान’ करने पर झिड़का, साथ ही राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद को सोमनाथ जाने से रोकने का भी प्रयास किया। इसका कारण नेहरू का मार्क्स-मैकाले दर्शन से ग्रस्त होना था। यह दर्शन बौद्धिक रूप से अंग्रेजों के विभाजनकारी एजेंडे को आगे बढ़ाने वाला था। इसी दर्शन के चलते नेहरू ने सोमनाथ मंदिर का विरोध किया और फिर अपितु दिसंबर 1949 को एक टेलीग्राम भेजकर तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार को बाबरी ढांचे से रामलला की मूर्ति को हटाने का आदेश दिया। हिंदू मंदिरों के प्रति अपनी अरुचि को नेहरू ने 17 मार्च 1959 को ‘ललित कला अकादमी’ के तत्वाधान में भारतीय वास्तुकला पर आयोजित सम्मेलन में यह कहकर प्रकट किया था, “कुछ दक्षिण के मंदिरों से… मुझे उनकी सुंदरता के बावजूद घृणा उत्पन्न होती है। मैं उन्हें बर्दाश्त नहीं कर सकता। क्यों? मैं इसे समझा नहीं सकता, लेकिन वे मेरी आत्मा को दबाते हैं।” हैरानी नहीं कि 2007 में संप्रग सरकार ने शीर्ष अदालत में शपथपत्र देकर श्रीराम को काल्पनिक चरित्र बता दिया और अब राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार कर दिया।

वामपंथी और मुस्लिम समाज के एक वर्ग के साथ स्वयंभू गांधीवादी 6 दिसंबर 1992 की विवादित ढांचे के ध्वंस की घटना को ‘कलंक’ बताते हैं, लेकिन वह ध्वंस एक तरह का गांधीवादी समाधान था। गांधीजी ने एक पाठक के प्रश्न का उत्तर देते हुए ‘यंग इंडिया’ में 5 फरवरी 1925 को लिखा था, “…अगर ‘अ’ का कब्जा अपनी जमीन पर है और कोई शख्स उस पर कोई इमारत बनाता है, चाहे वह मस्जिद ही हो, तो ‘अ’ को यह अख्तियार है कि वह उसे गिरा दे। मस्जिद की शक्ल में खड़ी की गई हर एक इमारत मस्जिद नहीं हो सकती। वह मस्जिद तभी कही जाएगी, जब उसके मस्जिद होने का विधान कर लिया जाए। बिना पूछे किसी की जमीन पर इमारत खड़ी करना सरासर डाकेजनी है। डाकेजनी पवित्र नहीं हो सकती। अगर उस इमारत को, जिसका नाम झूठ-मूठ मस्जिद रख दिया गया हो, उखाड़ डालने की इच्छा या ताकत ‘अ’ में न हो, तो उसे यह हक बराबर है कि वह अदालत में जाए और उसे अदालत द्वारा गिरवा दे, जब तक मेरी मिल्कियत है, तब तक मुझे उसकी हिफाजत जरूर करनी होगी, वह चाहे अदालत के द्वारा हो या अपने भुजबल द्वारा।”

प्राचीन-सांस्कृतिक साक्ष्यों के आधार पर यह प्रमाणित सत्य है कि श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या ही है। उनका जन्म किस स्थान पर हुआ, इसका उल्लेख भी स्कंदपुराण में है। अल-अक्सा मस्जिद सहित दुनिया में प्रसिद्ध ईसाई-इस्लामी तीर्थस्थल उनके अनुयायियों के विश्वास का परिणाम हैं, परंतु हिंदुओं से श्रीराम के अस्तित्व और उनके अयोध्या के विशेष स्थान पर जन्म लेने का साक्ष्य मांगा गया, कई भद्दे प्रश्न पूछे गए। शीर्ष अदालत की पांच सदस्यीय संवैधानिक खंडपीठ ने 9 नवंबर 2019 को एकमत होकर इन कपटी प्रश्नों को निरस्त कर दिया। इसी कपट के कारण ही राम मंदिर का पुनर्निर्माण विलंबित हुआ, लाखों निर्दोष रामभक्तों को अत्याचार सहना पड़ा और देश का सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ा। क्या इसके लिए जिम्मेदार लोग क्षमा मांगेंगे?

(स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकोलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ के लेखक हैं)

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