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भारत की राजनीति में सांस्कृतिक परिवर्तन, लोक भवन: नाम नहीं, नीयत का संदेश

संपादकीय पृष्ठभूमि, 03 दिसंबर 2025

(संतोष कुमार सिंह, राष्ट्र समर्पण, झारखंड)

 

विशेष:- “लोक” लिखा होगा, और अंदर वही पुराना “राज” बैठा मुस्कुराता रहेगा”


जब देश के एक दर्जन से अधिक राजभवन अब “लोक भवन” कहलाने लगे हैं, तो यह केवल साइनबोर्ड बदलने की खबर नहीं है। यह सत्ता के स्वरूप में एक सूक्ष्म पर गहरा परिवर्तन है। सात दशक बाद भी हम जिस भवन को “राज भवन” कहते रहे, उसमें “राज” शब्द ब्रिटिश क्राउन की गूँज लिए हुए था। अब “लोक” शब्द ने उसकी जगह ली है। यह बदलाव जितना प्रतीकात्मक है, उतना ही राजनीतिक भी।

मोदी सरकार ने पिछले ग्यारह वर्षों में प्रतीकों को हथियार की तरह इस्तेमाल करना सीख लिया है। राजपथ से कर्तव्य पथ, रेसकोर्स रोड से लोक कल्याण मार्ग, इलाहाबाद से प्रयागराज- हर बार एक नाम के पीछे पूरा नैरेटिव बदल दिया गया। “लोक भवन” भी उसी श्रृंखला की सबसे ताज़ा कड़ी है। यह संदेश साफ है: “सत्ता अब राजा की नहीं, जनता की है”। राज्यपाल, जो संवैधानिक रूप से राष्ट्रपति का प्रतिनिधि है, अब “राज” का नहीं, “लोक” का प्रतीक बनेगा। यह संदेश खासतौर पर उन राज्यों में ज़रूरी था जहाँ राज्यपाल और निर्वाचित सरकार के बीच टकराव आम हो चला है। “लोक भवन” नाम से कम से कम प्रतीकात्मक रूप से यह याद दिलाया जा रहा है कि राज्यपाल भी जनता के प्रति जवाबदेह है, केंद्र के नहीं।

दिलचस्प बात यह है कि इस बार विपक्ष ने भी ज़्यादा शोर नहीं मचाया। तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, केरल, तेलंगाना जैसे गैर-भाजपा शासित राज्य भी चुपचाप इस बदलाव को लागू कर रहे हैं। इसका एक कारण यह हो सकता है कि नाम बदलने में न तो कोई कानूनी बाधा है, न ही कोई बड़ा वित्तीय बोझ। साइनबोर्ड, लेटरहेड और वेबसाइट- बस इतना ही बदलना है। दूसरा कारण यह कि “लोक” शब्द पर कोई आपत्ति करना राजनीतिक रूप से जोखिम भरा है। कौन कहेगा कि वह “लोक” के खिलाफ है?

लेकिन सवाल गहरे हैं। क्या केवल नाम बदल देने से राज्यपालों की भूमिका जन-केंद्रित हो जाएगी? क्या जिन राज्यों में राज्यपाल विधानसभाओं को भंग करने, विधेयकों को अटकाने या सरकारें गिराने के औजार बने हुए हैं, वहाँ “लोक भवन” नाम से कोई फर्क पड़ेगा? प्रतीक तभी सार्थक होते हैं जब उनके पीछे नीयत मज़बूत हो। यदि राज्यपाल अब भी केंद्र के राजनीतिक प्रतिनिधि बने रहे, तो “लोक भवन” महज़ एक खोखला शब्द बनकर रह जाएगा- जैसे “जनता का चौकीदार” या “सबका साथ, सबका विकास” कुछ राजनीतिक पार्टीयों के लिए बनकर रह गए थे।

फिर भी, इस कदम को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। प्रतीक समाज की चेतना को धीरे-धीरे बदलते हैं। जब बच्चे स्कूल में पढ़ेंगे कि उनका राज्यपाल “लोक भवन” में रहता है, तो शायद अगली पीढ़ी में “राज” शब्द की औपनिवेशिक गूँज वाकई कम हो जाए। यह बदलाव 2047 के “विकसित भारत” के सपने का एक छोटा-सा, पर ज़रूरी कदम है- मानसिक गुलामी की आखिरी जंजीरें तोड़ने का।

बशर्ते यह नाम बदलाव का अंतिम पड़ाव न बने। बशर्ते इसके बाद असली सुधार हों- राज्यपालों की नियुक्ति में पारदर्शिता, उनके अधिकारों की स्पष्ट सीमाएँ, और केंद्र-राज्य संबंधों में नया संतुलन। तब “लोक भवन” सचमुच लोक का भवन बनेगा। वरना यह भी एक और भव्य साइनबोर्ड ही रहेगा- जिस पर सुनहरे अक्षरों में “लोक” लिखा होगा, और अंदर वही पुराना “राज” बैठा मुस्कुराता रहेगा।

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राष्ट्र समर्पण एक राष्ट्र हित में समर्पित पत्रकार समूह के द्वारा तैयार किया गया ऑनलाइन न्यूज़ एवं व्यूज पोर्टल है । हमारा प्रयास अपने पाठकों तक हर प्रकार की ख़बरें निष्पक्ष रुप से पहुँचाना है और यह हमारा दायित्व एवं कर्तव्य भी है ।

By Rashtra Samarpan

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