लकीर को लेकर यह पुरानी कहानी है कि एक लकीर को छोटा करना हो तो उससे बड़ी दूसरी लकीर खींच दो। दूसरा तरीका है, साथ वाली लकीर को छोटा कर दो। यह तरीका असहिष्णु है।
पिछले कुछ समय से भारतीय मीडिया इंडस्ट्री के मुट्ठी भर ऐसे पत्रकार जो यूपीए की सरकार में 07 रेस कोर्स रोड़ के वफादार होने की वजह से शीर्ष के पत्रकारों में गिने जाते थे। चूंकि वे यूपीए सरकार के जिस घोड़े पर बैठकर सरपट दौर रहे थे, वह 2014 में गिर गई।
यह बात पत्रकारिता के छात्रों के लिए महत्वपूर्ण है कि इस देश में पत्रकार बड़ा होने के लिए सत्ता केन्द्रों में अपनी पहुंच का मोहताज होता है। जिस पत्रकार की सत्ता के अंदर जितनी महत्वपूर्ण दखल होगी, वह उतना ही बड़ा पत्रकार होगा। बरखा, राजदीप, पंकज पचौरी, विनोद दुआ, करण थापर, सागरिका जैसे पत्रकार इसलिए बड़े पत्रकार नहीं रहे कि इन्होंने भारतीय पत्रकारिता के गणेश शंकर विद्यार्थी थे। यह सभी अपने छुद्र स्वार्थों के अंधे पत्रकारों ने अपने पत्रकारिता कॅरियर में अपना घर भरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इनके लिए पत्रकारिता करना वैसे ही है, जैसे चौरसिया पान भंडार वाले के लिए अपना पान बनाने का काम।
2014 में जब सत्ता परिवर्तन हुआ तो निश्चित था कि जो पुराने लोग हैं, वे किनारे लगाए जाएंगे। निर्वात की जो स्थिति बनेगी उसे कुछ नए लोग भरेंगे। अर्णव गोस्वामी, सुधीर चौधरी, श्वेता सिंह, रोहित सरदाना, अमीश देवगन जैसे नए लोगों ने वह जगह ली। यह स्वीकार करने में क्या हर्ज कि ये जो नए लोग अचानक नई सरकार में लोकप्रियता के शिखर पर पहंचे उसमें सत्ता शिर्ष तक इनकी पहुंच की भूमिका रही होगी। यह भी सच है कि इन नए लोगों में वामपंथी पत्रकारों की तरह ना धूर्तता का वो आर्ट था और ना वो क्राफ्ट था। भारतीय पक्ष के साथ मजबूती से खड़े इन पत्रकारों की आलोचना करने वालों को दलित लेखन का शुरूआती दौर याद करना चाहिए। जहां क्राफ्ट पर बार—बार सवाल उठता था। उस लेखकों का बड़ा वर्ग इस बात पर सहमत हुआ कि यह दलित लेखन की पहली पीढ़ी है। पहला ड्राफ्ट है। थोड़ा और मंजेगा, थोड़ा और निखरेगा।
इसी प्रकार भारतीय पक्ष के साथ मजबूती से खड़े एंकरों की भी यह पहली पीढ़ी है। इनकी एंकरिंग थोड़ा और मंजेगा फिर थोड़ा और निखरेगा।
अपनी लाख कोशिशों और प्रोपगेंडा के बावजूद हासिए पर डाल दिए गए वामपंथी पत्रकारों ने अब असहिष्णुता की एक नई मिसाल कायम की है। अब यह समूह अपील कर रहा है कि आप टेलीविजन ना देखिए। इस अपील का भारतीय समाज रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ने वाला लेकिन यह बात दर्ज करनी उसके बावजूद इसलिए जरूरी है क्योंकि आप समझ पाएं कि वामपंथ की कट्टतरता क्या होती है? एक व्यक्ति जो ऐसी कोई बात करता हो जिससे आप सहमत नहीं हैं, तो भारतीय पक्ष कहता है कि उसे सुनो। उसके कहे में अपने लिए सुधार की राह हो सकती है। वही ऐसे मामले पर वामपंथ का कहना है कि ऐसे लोगों को ब्लॉक कर दो। यह आपको देशद्रोह के रास्ते से पथभ्रष्ट कर सकता है। ओमथानवी से लेकर रवीश कुमार तक ब्लॉक करने के मामले में इसके उदाहरण हो सकते हैं। चूंकि समाज में अर्णव, सुधीर, श्वेता और रोहित ने अपनी एक फैन फॉलोविंग खड़ी की है। उन्होंने देश को एक नैरेटिव दिया है। विभिन्न मुद्दों को देखने और समझने का नजरिया दिया है, जो वामपंथी पत्रकारों को बिल्कुल पसंद नहीं आ रहा, इसलिए वे फूका हुआ अभियान चला रहे हैं कि खबरिया चैनल देखना बंद कीजिए। यह सिर्फ पत्रकारिता में खीसक चुकी उनकी जमीन की स्थिति को स्पष्ट करता है। उनकी असष्णुता को जाहिर करता है।
बाकि इस देश का दर्शक खुद समझदार है, उसे पता है कि क्या देखना है, कितना देखना है और क्या नहीं देखना है और कभी नहीं देखना है।
लेख : आशीष कुमार ‘अंशु’
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